आतंकवाद के खिलाफ एक आवाज

आतंकवाद के खिलाफ एक आवाज

Pesपेशावर में मासूमों पर हुए आतंकी हमले से चंद बातें सामने आती हैं. इनमें कुछ ऐसे तथ्य हैं जो हर किसी को सोचने पर मजबूर करते हैं. पहली बात यह कि आतंकियों ने आर्मी स्कूल को ही क्यों चुना? उन्होंने ऐसा शायद इसलिए किया क्योंकि उन्हें यह दर्शाना था कि उन्हें हल्के में न लें. वर्ना एक ऐसा स्कूल जहां देश की सुरक्षा के लिए जाबांजों को तैयार किया जाता हो, वहां की सुरक्षा को अंगूठा दिखाकर आतंकियों के मंसूबे इतनी आसानी से हकीकत की शक्ल नहीं ले सकते थे. इसका सीधा मतलब यह था कि आतंकी यह जताना चाहते थे कि आतंकवाद कहीं भी और कभी भी दस्तक दे सकता है. बीते कुछ महीनों में आतंकवाद जिस तरह से मुखर हुआ है वो सभी के सामने है. फिर बात चाहें सीरिया की करें, अमेरिका में आईएसआईएस के आतंक की करें या फिर हाल ही में ऑस्ट्रेलिया में बेगुनाहों को बंधक बनाने की. यहां तक कि भारत में भी आईएस जैसे कुख्यात संगठन की दस्तक भी भारत में सुनाई देने लगी है. बंगलुरू में मेहदी नामक युवक पर लगे आरोप इसकी पुष्टि करने भर को काफी हैं.

इंसानियत व अमन-ओ-चैन को तबाह कर दुनिया को नफरत के रंग में रंगने के मंसूबे में आतंकवाद हर दिन एक नए चेहरे व नये मोहरे के साथ आगे बढ़ रहा है. इसपर नकेल कसी जानी चाहिए. ऐसा हर कोई कहता है. लेकिन यह होगा कैसे? इसपर कोई चर्चा क्यों नहीं करता? अगर चर्चा करता भी है तो उस चर्चा को हकीकत की जमीन पर उतारने के लिए जद्दोजहद क्यों नहीं करता? ऐसा शायद इसलिए क्योंकि हमारा स्वार्थ हमपर हावी हो चला है.

हालांकि, इसके अलावा भी कुछ कारण हो सकते हैं, जिनसे गुरेज नहीं किया जा सकता. कोई कहता है कि इन आतंकवादियों से बदला लेना चाहिए. लेकिन जरा आराम से सोचिए. क्या यह इतनी आसानी से संभव है? जीभ उठाकर पटक देने में समय नहीं लगता लेकिन उसी काम को करने में वक्त भी लगता है, दिमाग भी लगता है और संसाधनों का भी समुचित प्रयोग होता है. दुश्मन को जज्बातों से नहीं हराया जा सकता. उसे उसकी सबसे कमजोर नब्ज पकड़कर ही तोड़ा जा सकता है. जहां तक बात है आतंकवाद की तो उसके न तो जज्बात होते हैं और न ही कोई मजहब. हमें कुछ ऐसे उपाय करने होंगे कि आतंकवाद अपनी मौत मांगे और उसे मौत नसीब न हो. लेकिन यह सब एक ऐसी कालकोठरी में होना चाहिए जहां से आतंकवाद अपने प्रभाव को प्रचारित न कर सके.

आतंकवाद की मंशा ही यही है कि उसकी मौजूदगी, उसका खौफ और उसकी निरंतरता दुनिया भर के मुल्कों में बनी रहे. इसीलिए वह अपने तमाम संगठन बनाता है. जो विभिन्न देशों में अपने विभिन्न रूपों के साथ दहशत फैलाता है. आतंकवाद की सबसे कमजोर नब्ज क्या है? इसकी उपज की वजह ही शायद इसकी सबसे कमजोर नब्ज है. आतंकवाद एक सोच है. एक ऐसी घिनौनी सोच जिसके धरातल पर कट्टरता हिलोरें मारती है. लेकिन यह कट्टरता एक दिन में तो आती नहीं होगी. इससे भी बड़ा सवाल यह कि यह आती क्यों और कहां से है? जहां तक मेरा विवेक काम करता है तो मुझे लगता है कि यह सब परवरिश के दौरान दिए गये संस्कारों की देन है. जो कि समझ के परिपक्व होने के साथ ही साथ एक विकराल रूप धारण कर लेती है. जिसके बाद वह अपना प्रकोप निर्दोष लोगों का लहू बहाकर दिखाती है. हम ज्यादा पीछे न जाकर बीते दो दिनों का ही जिक्र करें तो अखबार के पन्नों पर आतंकवाद की खौफनाक दास्तान की तस्वीर ही छपी है. एक ऐसा आतंकवाद जो लोगों को डराना चाहता है, भगाना चाहता है, धमकाना चाहता है और खुद को सर्वशक्तिमान सोच बताने की बेजा कोशिश करता है.

सिडनी अटैक में मार्टिन प्लेस स्थित लिंट कैफे का बंधक संकट 16 घंटे के ऑपरेशन के खत्म तो हो गया लेकिन क्या यह पूरी हकीकत है? बिल्कुल नहीं. यह एक अधूरी सच्चाई है. जिसका अगला अध्याय दुर्बल आतंकवाद ने पकिस्तान के पेशावर में मासूमों की जान लेकर लिखा. इन दोनों किस्सों को सुनकर ही देह थरथरा उठती है. लेकिन आतंकवाद इस बीच यह भूल जाता है कि वह जिन्हें नुकसान पहुंचा रहा है, वही उसके अस्तित्व को हाशिये पर धकेल सकता है. जो कि आतंकवाद के लिए सबसे खतरा है. आतंकवाद के अस्तित्व को खत्म किया जा सकता है. यह संभव है. इसके लिए एकजुट होने की जरूरत है. उन मुल्कों को, जिन्होंने इसका दंभ झेला है. उन मुल्कों को, जो इंसानियत का झंडा बुलंद करना चाहते हैं. उन संगठनों को जिनके लिए धर्म और मजहब का एकमात्र मतलब है इंसानियत. अगर ऐसा हुआ तो यकीन मानिए आतंकवाद के खिलाफ एक जनआंदोलन खड़ा करने में मददगार साबित होगा. हां, इससे भी इनकार नहीं किया जा सकता कि इस दुनिया में ऐसे तमाम तत्व मौजूद हैं जिनके लिए तबाही और विनाश ही उनका भोजन है. लेकिन इसके बावजूद जब दुनिया के ज्यादातर लोग प्यार का पैगाम लेकर एक-दूसरे को अपनेपन से गले लगाएंगे तो ऐसे में आतंकवाद की हालत खस्ता होगी.

इसके साथ ही आतंकवाद पर नकेल कसने के अन्य पहलुओं पर भी नजर बनाये रखने की जरूरत है. जैसे कट्टरवादी संगठनों पर पाबंदी लगाना, देशद्रोह के केसेज में नरमी की सारी गुंजाइशों के रास्ते बंद कर देना वगैरह वगैरह. किसी महान व्यक्ति ने कहा था कि आंख के बदल आंख मांगोगे तो एक दिन सारी दुनिया अंधी हो जाएगी. एक पल के लिए हम अगर अपने जज्बातों को थाम कर इस वाक्य की गहराई में जाने का प्रयास करें तो पाएंगे कि यकीनन बुराई को बुराई से खत्म नहीं किया जा सकता. बुराई की हार इसी में है कि दुनिया में कोई इस शब्द का मतलब ही न जानता हो. हर बुरी सोच अपना प्रचार चाहती है, अपना प्रसार चाहती है. जो कि अच्छी सोच वालों के होते हुए संभव नहीं है.

मैं जानता हूं कि यह सब इतना आसान नहीं है जितना लिखना है. लेकिन मैं यह भी जानता हूं कि यह इतना कठिन भी नहीं है जितनी हम इसके होने की कल्पना करते हैं. इस सबके इतर हमें यह भी मानना होगा कि आतंकवाद किसी मुल्क या क्षेत्र विशेष को तबाह नहीं करता. वह अपने धमाकों की धमक से समूचे विश्व को अपनी मौजूदगी का अहसास दिलाता है. फिर हम यह क्यों मान लेते हैं कि अरे हमें क्या. धमाका तो फलाने मुल्क में हुआ है या यह आतंकी घटना तो फलाने मुल्क की है. यह सोच आतंकवाद की सोच से कहीं ज्यादा खतरनाक है. आतंकवाद के खात्मे के लिए मुल्कों के अंतर व मतभेदों को भुलाकर एकजुट होकर ही किया जा सकता है. यही शायद आतंकवाद का शिकार हुए लोगों के लिए सच्ची श्रद्धांजलि होगी.

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प्रवीण दीक्षित
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3 Comments

  1. अति सुन्दर लेखन

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